"परचम"(ग़ज़ल)
"निगाहे - नाज़ से ख़ंजर
उठा लेती तो अच्छा था !
तू अपने हुस्न को परदा
बना लेती तो अच्छा था !
भड़कती जा रही है दम
बदम इक आग सी दिल में ,
तू अपने रुख़ से ये बादल
हटा लेती तो अच्छा था !
छलकती है जो तेरे जाम से
उस मय का क्या कहना ,
तू आंसू पोंछ कर अब
मुस्कुरा लेती तो अच्छा था !
तेरे माथे का टीका मर्द की
क़िस्मत का तारा है ,
भरी महफ़िल में आकर सिर
उठा लेती तो अच्छा था !
तेरे माथे पे ये आंचल बहुत
ही ख़ूब है लेकिन ,
तू इस आंचल से इक परचम
बना लेती तो अच्छा था !"
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